हिन्दी विभाग में मनाई ‘जयशंकर प्रसाद जयंती’
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मनाई ‘जयशंकर प्रसाद जयंती’
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के विविध आयाम’ प्रसाद जयंती पर विशेष कार्यक्रम का आयोजन
चौधरी रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जींद के हिन्दी विभाग में आज ‘जयशंकर प्रसाद जयंती’ पर ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के विविध आयाम’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर मुख्य उपस्थिति प्राचार्य युगल डॉ० रवीन्द्र कुमार हुड्डा और निवर्तमान डॉ० तनाशा हुड्डा की रही और वरिष्ठ कवयित्री डॉ॰ मंजू मानव को मुख्य वक्ता के रूप में आयोजन को शोभायमान किया।
मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ठ कवयित्री डॉ॰ मंजू मानव ने आयोजन को सार्थकता प्रदान करते हुए कहा कि छायावाद के आधार स्तम्भ हैं। उन्होंने जयशंकर प्रसाद की महानता के विविध आयामों से अवगत करवाते हुए बताया कि जयशंकर प्रसाद हिन्दी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा श्रेष्ठ निबन्धकार थे। इन्होंने उनके नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए कहा कि उनके साहित्य स्वयंमेव प्रसाद रूप में ही है जो पाठकों को अपनी ओर आकृषित कर मंत्रमुग्ध कर देती हैं। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं।आज उनकी जयंती है। उनका जन्म 30 जनवरी, 1889 में हुआ था। जयशंकर प्रसाद को कविता करने की प्रेरणा अपने घर-मोहल्ले के विद्वानों की संगत से मिली। हिंदी साहित्य में प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे।
उन्होंने आगे बताया कि कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास यानी रचना की सभी विधाओं में उन्हें महारत हासिल थी। उनकी कामायनी, आंसू, कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, झरना और लहर कुछ प्रमुख कृतियों की पक्तियों के माध्यम से उनके काव्य में छिपे संदेश एवं रहस्यात्मकता को मुखरित किया। जयशंकर प्रसाद के पिता वाराणसी के अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उन्हें 'सुंघनी साहु' के नाम से जाना जाता था।
उन्होंने आगे बताया कि इनके पूर्वज सुगन्धित नसवार और तम्बाकू के प्रतिष्ठित वैभवशाली व्यापारी थे। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू धार्मिक व दान प्रवृति के व्यक्ति थे। प्रातःकाल गंगा स्नान से लौटते समय उनके पास जो कुछ भी रहता, वे सब दान कर दिया करते थे। यह पैत्रिक गुण परम्परागत रूप से जयशंकर के पिता बाबू देवीप्रसाद जी को भी प्राप्त हुआ था।
उन्होंनें आगे बताया कि वे भी विद्वानों, कलाकारों का आदर करने के लिए विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा ही सम्मान था और काशी की जनता काशी नरेश के बाद ‘हर हर महादेव’ से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। जयशंकर प्रसाद जी का कुटुम्ब शिव का उपासक था। माता पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव काशी विश्वनाथ से बड़ी प्रार्थना की थी। देवघर वैद्यनाथ धाम से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति के कारण शैशव में सभी जयशंकर प्रसाद को ‘झारखण्डी’ कहकर पुकारते थे। वैद्यनाथधाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ था।
चौधरी रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जीन्द कुलपति डॉ॰ रणपाल सिंह ने बताया कि इस प्रकार के जयंती समारोहों का आयोजन होते रहने चाहिए। इससे विद्यार्थी साहित्यकारों से अवगत रहते हुए अनुप्रेरित होते हैं। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का नाम हिंदी सेवियों के दिलों में युग प्रवर्तक की तरह आबाद रहेगा।
कुलसचिव प्रो० लवलीन मोहन ने कहा है कि जयशंकर प्रसाद व दुखों का बचपन से ही गहरा नाता था लेकिन ऐसे झंझावातों से उबरना भी उन्हें खूब आता था। गमों के इन पहाड़ों से निकल साहित्य-कला का दरिया और समृद्ध होता जाता था। इसने उन्हें ख्यात कवि, नाटककार, उपन्यासकार व निबंधकार बनाया और उन्होंने साहित्य जगत को कामायनी समेत काव्य, नाटक, कहानी संग्रह व उपन्यासों की सौगात देकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। जयशंकर प्रसाद का हिन्दी साहित्य जगत् में वही स्थान है जो अंग्रेजी साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेता टी॰ एस॰ इलियट का है।
अधिष्ठाता, मानवीकि संकाय प्रो॰ संजय कुमार सिन्हा ने बताया कि देश में जहां कहीं भी साहित्य की बात आती है नजरें बरबस ही काशी की ओर मुड़ जाती हैं। महादेव की नगरी में पले-बढ़े और साहित्य के शिखर पर तमाम नाम सूरज की तरह चमके और संपूर्ण देश ही नहीं पूरी दुनिया भर में दपदप दमके।
आयोजन में बीज वक्तव्य को अर्थवत्ता डॉ॰ मन्जु रेढ़ू ने कहा कि प्रसाद का साहित्य जड़ एवं चेतन में एक ही तत्त्व देखता है तथा इच्छा को सर्जना एवं काम को ऊर्जा का हेतु मानता है। उनमें कर्म एवं भोग का सहज समन्वय है। उनकी रचना के मूल में मनुष्यता का अन्वेषण है। वे अतीतगामी नहीं अपितु प्राचीन भारतीय वैभव के विलक्षण उत्खननकर्ता हैं। ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में उन्होंने प्राचीनता के बहाने समकालीन चेतना की नारी की सर्जना की है। ‘कामायनी’ में प्रसाद के जीवन-निष्कर्ष एवं जीवनानुभव हैं न कि केवल कथा-वस्तु व पात्र। उनके नाटक नए रंगमंच को भी गति देने में समर्थ हैं।
उन्होंने आगे बताया कि वैसे तो जयशंकर प्रसाद ने कविता, नाटक, कहानी, निबंध, उपन्यास- हर विधा में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, पर नाटक के क्षेत्र में उनका योगदान बेहद खास है। दरअसल, उपन्यास की दुनिया में जो स्थान प्रेमचंद का है, वही स्थान हिंदी नाटक साहित्य में प्रसाद को हासिल है
हिन्दी विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ॰ ब्रजपाल ने कामायनी महाकाव्य का जिक्र करते हुए बताया कि कामायनी को मुख्यत: चार भागों में बाँटा गया है- पहला जल-प्लावन और मनु का प्रसंग, दूसरा मनु और श्रद्धा के मिलन से मानव का जन्म, तीसरा मनु और इड़ा का मिलन तथा सारस्वत प्रदेश का आख्यान एवं चौथा मनु द्वारा त्रिपुर का दर्शन सह कैलास यात्रा। त्रिपुर दर्शन का उल्लेख शैवदर्शन के ‘त्रिपुर रहस्य’ प्रकरण में मिलता है, किंतु वह सिर्फ़ दार्शनिक प्रसंग मात्र है। परन्तु कामायनीकार ने दर्शन और मनोविज्ञान के धरातल पर भावलोक, कर्मलोक और ज्ञानलोक का वर्णन करते हुए ज्ञान, कर्म और ख़्वाहिश में सामंजस्य स्थापित करने की प्रेरणा दी है। स्वयं कवि के शब्दों में-‘‘ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की, एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की।’’
हिन्दी विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ॰ सुनील कुमार ने बताया कि जयशंकर प्रसाद मूल रूप से कश्मीरी शैवदर्शन से प्रभावित थे। इसके अतिरिक्त शंकराचार्य का अद्वैतवाद, कपिल का सांख्य दर्शन, बौद्ध दर्शन तथा परमाणुवाद का भी यत्र-तत्र असर देखा जा सकता है। प्रसादजी की खासियत रही है कि जहाँ कहीं किसी सत्य का अन्वेषण करना हो तो वे दर्शन का ही आधार लेते हैं। वहीं दूसरी ओर आन्तरिक वृत्तियों के विश्लेषण में मनोविज्ञान का सहारा लेते हैं।
कार्यक्रम में हिंदी विभाग की एम. ए. कक्षा की छात्रा मधुबाला और मुकेश ने प्रसाद की कविताओं क्रमशः छायावाद की पहली रचना ‘झरना’ और छायावाद का पहला काव्य संग्रह ‘आँसू’ का पाठ किया। इस अवसर पर जनसम्पर्क एवं सूचना अधिकारी डॉ जयपाल सिंह राजपूत, अंग्रेजी विभाग से डॉ॰ संदीप पानू, डॉ॰ सीमा व फ्रेंच विभाग से डॉ॰ अन्नु की उपस्थिति जीवंत रही।