हिन्दी विभाग में मनाई नामवर की पुण्यतिथि
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मनाई नामवर की पुण्यतिथि
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में ‘नामवर की नामवरी’ नामवर सिंह की पुण्यतिथि पर विशेष कार्यक्रम का आयोजन
चौधरी रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जींद के हिन्दी विभाग में नामवर की पुण्यतिथि पर ‘नामवर की नामवरी’ साहित्य समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में प्रो॰ सत्यपाल सहगल (पूर्व विभागाध्यक्ष, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़) और मुख्य वक्ता के रूप में युवा लेखक एवं आचोलक डॉ॰ अंकित नरवाल (युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित) ने आयोजन को शोभायमान किया।
मुख्य वक्ता के रूप में नामवर की जीवनी लेखाकार डॉ॰ अंकित नरवाल ने आयोजन को सार्थकता प्रदान करते हुए कहा कि नामवर सिंह के जीवन को तीन काल खंडों में बाँटकर देखा जाता है। पहला 1941 से 1959 तक, जब वे पहली बार बनारस पढ़ने के लिए आए और फिर वहीं अध्यापक बने और फिर वहाँ से एक विशेष पार्टी से चुनाव लड़ने के कारण निष्कासित किए गए। दूसरा 1960-1974 तक। यह वह समय है जब वे बनारस में ही अपने घर में धूणी रमाकर साहित्यिक अध्ययन में रम गए और फिर 1974 में जेएनयू में अध्यक्ष बने। उनके जीवन के ये लगभग 15 वर्ष जहाँ आर्थिक स्तर पर बेहद तकलीफ के वर्ष थे, वहीं रचनात्मक तौर पर निःसंदेह अनुपम। उनका जेएनयू में अध्यक्ष बनकर आना और वहाँ एक नए ढंग का सेंटर बनाना हिन्दी के लिए एक अनुकरणीय बन गया। वहीं वे मैनेजर पाण्डेय, केदारनाथ सिंह, वीरभारत तलवार और पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे अध्यापकों को लेकर आए और हिन्दी का अपने ढंग का सबसे अद्भुत विभाग स्थापित किया। उन्होंने वहाँ के विद्यार्थियों में यह हौसला भरा कि हिन्दी वाला भी सभी बहसों में भाग ले सकता है। वे केवल बहसों के मूक श्रोता भर नहीं थे, बल्कि उनकी मेधा इन बहसों को एक नई दिशा देती थी।
उनके जीवन का तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण कालखंड 1974 से 2019 तक है। यह वही दौर है, जिसमें वे आलोचना के युग व्यक्तित्व बने। उन्होंने आलोचना को सहयोगी प्रयास की तरह स्थापित किया। उन्होंने लिखने के साथ-साथ अपनी वक्तृत्व कला का लोहा मनवाया। उन्होंने कहा कि मैं मर-मर कर भी बोलना चाहता हूँ। मैं अपनी आवाज को उन लोगों तक पहुँचाना चाहता हूँ जो किताबों की जद से दूर कर दिए गए हैं। उन्होंने अपने भाषणों से साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीति, दर्शन और समाजशास्त्र जैसे विषयों की उपयोगिता को विवेचित किया।
उन्होंने आगे बताया कि नामवर सिंह निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुए। उनके साहित्यिक संस्कार कामता प्रसाद ‘विद्यार्थी’ जी ने पोषित किए। उनकी माँ ने अपने बेटे को पढ़ाने के लिए अपने गहने तक बेच दिए, किंतु उनकी शिक्षा को निरंतर जारी रखा। बनारस के उदय प्रताप कॉलेज से होते हुए हिन्दू विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट करने तक उनकी साहित्यिक भूख बढ़ती चली गई। उनके लिए पढ़ाई और केवल पढ़ाई ही एकमात्र व्यसन था। बनारस को साहित्यिक संस्कार देने में नामवर सिंह की विशेष भूमिका रही है।
उन्होंने आगे बताया कि नामवर सिंह केवल हिन्दी के अध्यापक भर नहीं थे, बल्कि एक कुशल संपादक भी रहे। राजकमल प्रकाशन के संपादन विभाग में 1960 में वे जुड़े और लगभग अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक जुड़े रहे। ‘आलोचना’ पत्रिका को उन्होंने अपनी संपादन कला से उच्चाई प्रदान की। राजकमल प्रकाशन के साथ उन्होंने बहुत सारे लेखकों को जोड़ा, जिनमें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, रेणु, नागार्जुन आदि जैसे प्रमुख लेखक शामिल हैं। निःसंदेह वे एक अनुकरणीय लेखक-अध्यापक रहे।
चौधरी रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जीन्द कुलपति डॉ॰ रणपाल सिंह ने कहा कि इस प्रकार के जयंती एवं पुण्यस्मरण समारोहों आयोजित होते रहने चाहिए। इसने विद्यार्थी साहित्यकारों से अवगत रहते हुए अनुप्रेरित होते हैं। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ॰ नामवर सिंह का नाम हिन्दी जगत् में शिखर स्थान का अधिकारी है।
कुलसचिव प्रो० लवलीन मोहन ने कहा है कि नामवर सिंह का नाम अंग्रेजी विभागों में भी बड़े आदर के साथ याद किया जाता है। उनकी आलोचना बेहद नवीन विषयों को केन्द्र में लाती रही है।
अधिष्ठाता, मानविकी संकाय प्रो॰ संजय कुमार सिन्हा ने बताया कि देश में जहां कहीं भी साहित्य की बात आती है नजरें बरबस ही काशी की ओर मुड़ जाती हैं। डॉ॰ नामवर सिंह अपने युवा काल में ही छात्रों के बीच प्रसिद्ध हो गये थे। जब वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में थे उस समय एक बार उनसे मुलाकात का संयोग भी बना। उनकी बात कहने की जो शैली थी, वह अद्भुत थी। वह हर छोटी बात को भी बड़े ही रोचक ढंग से कहते थे।
अपने बीज वक्तव्य में डॉ॰ मंजु रेढू ने बताया कि नामवर सिंह के प्रशंसक कहते हैं कि उनकी जैसी शख्सियतें, जिनसे सहमत होना भी असहमत होने जितना ही कठिन हो, सदियों में एक-दो ही पैदा हुआ करती हैं, जबकि उनकी बाबत इस तथ्य को लेकर किसी भी स्तर पर कोई असहमति नहीं है कि वाद-विवाद संवाद के रस में पगते, बेचैनी व तड़प से भरते, कभी द्वंद्व के लिए ललकारते, कभी निःशस्त्र करते और कभी वार चूकते हुए उन्होंने अपने लिए जितना अकेलापन, असहमतियां व विवाद लेखन व सृजन से पैदा किए, उनसे ज्यादा व्याख्यानों से पैदा किए। यों, उनकी आलोचकीय स्थापनाओं व विचारों को लेकर भी उनकी कुछ कम आलोचनाएं नहीं हुईं. लेकिन अपने आलोचकों के प्रति वे कभी निर्दय नहीं हुए और उनके द्वारा की गई आलोचनाओं के संदर्भ में नीर-क्षीर-विवेक अपनाया।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन को अर्थवत्ता देते हुए विख्यात प्रो॰ सत्यपाल सहगल ने कहा कि नामवर की पुण्यतिथि पर चौधरी रणबीर सिंह विश्वविद्यालय की भूरि-भूरि तारीफ़ करते हुए कहा कि पूरे भारतवर्ष में कितने विश्वविद्यालय होंगे जो नामवर सिंह को याद करते हुए अपने विभाग में आयोजन कर रहे होंगे। मुझे लगता है आपने इसमें प्राथमिकता हासिल की है। रही बात नामवर सिंह की तो डॉ॰ नामवर सिंह ने हिन्दी और आलोचना दोनों के लिए विशेष काम किया है। उन्होंने बताया कि नामवर सिंह की खासियत रही है कि उनमें विषय से उद्धरण लेने की विशेष योग्यता थी। वे न केवल हिन्दी, बल्कि दूसरी भाषाओं के महत्त्वपूर्ण लेखकों को भी पहली निगाह में ही पहचान लेते थे। इन लेखकों की रचनाओं की स्मृति उन्हें स्थाई तौर पर रहती थी।
‘नामवर की नामवरी’ साहित्य समारोह का कुशल संचालन डॉ॰ सुमन पूनिया ने अत्यन्त दक्षता से किया और सभी विद्वानों ने उनके संचालन की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
इस समारोह में डॉ॰ जोगी सिंह, जनसम्पर्क एवं सूचना अधिकारी डॉ॰ जयपाल सिंह राजपूत एवं सुधीर, हिन्दी विभाग से डॉ॰ ब्रजपाल, डॉ॰ सुनील, डॉ॰ सुमन, शैलेन्द्र भोला तथा विश्वविद्यालय पुस्तकालय में कार्यशील दीपक, रिंकू और सुमित की उपस्थिति जीवंत रही।